।। अधर में फंसा जीवन ।।
अधर में फंसा जीवन, किधर से सुलझाऊँ इसे
क्रोध सम्पूर्ण आवेग में, सर-धर से बुझाऊँ कैसे
जिधर देखू अगम्य मार्ग, विश्राम वहीं शरीर का
पीठ का भार आलस, श्रम स्वयं करूँ कैसे
तन का तंत्र अपवित्र, चरित्र को सुधारूँ कैसे
नेह का चेतना नहीं, रोम-रोम पहुंचाऊँ कैसे
वाद-विवाद का हिस्सा, करता मंच का चुनाव नहीं
त्वरित मुख का खुल जाना, जिह्वा को संभालूँ कैसे
क्रोध सम्पूर्ण आवेग में, सर-धर से बुझाऊँ कैसे
जिधर देखू अगम्य मार्ग, विश्राम वहीं शरीर का
पीठ का भार आलस, श्रम स्वयं करूँ कैसे
तन का तंत्र अपवित्र, चरित्र को सुधारूँ कैसे
नेह का चेतना नहीं, रोम-रोम पहुंचाऊँ कैसे
वाद-विवाद का हिस्सा, करता मंच का चुनाव नहीं
त्वरित मुख का खुल जाना, जिह्वा को संभालूँ कैसे
आदर्श व्यक्तित्व हैं बहुत, अंतरात्मा में उतारूँ किसे
पहाड़-सा अहम-अंहकार है, स्वयं को झुकाऊँ कैसे
प्रत्येक कार्य में हठी, पूर्ण करके ही उठूंगा
भूख प्यास त्याग दी, हृष्ट-पुष्ट देह बने कैसे
देर निद्रा का आदी है, तंद्रा में बदलूँ कैसे
वक्त का अकर्म व्यय, काल को रोकूं कैसे
रण आंदोलन मन बुझ गया, अब कौन हाहाकार मचाए
अन्य की सहायता चाहूं ना, सपनों की सीढ़ियाँ चढूं कैसे
©ps 'प्रकाश साह'
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बहुत बहुत आभार आपका। धन्यवाद।
ReplyDeleteतन का तंत्र अपवित्र, चरित्र को सुधारूँ कैसे
ReplyDeleteनेह का चेतना नहीं, रोम-रोम पहुंचाऊँ कैसे
बहुत खूब ,सादर
अविलंब के लिए माफी चाहता हूँ।
Deleteप्रशंसा हेतु बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
अच्छे व प्यारे शब्द।
ReplyDeleteधन्यवाद संजय जी
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