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Tuesday 18 October 2022

मैं आसमान बन बैठा हूँ | PRAKASH SAH


www.prkshsah2011.blogspot.in

 


कभी-कभी 

साँसों को 

मैं अटका कर रखता हूँ,

कुछ बातें

छिपाकर रखता हूँ।

दिन जो 

धीरे-धीरे ढ़ल जाता है,

सुबह भी हर रोज़

रोज़ की तरह

खिड़कियों पे 

चली आती है,

पर जाे बातें

ज़ेहन में अटकी रहती हैं,

वाे कभी

झाँककर भी कहाँ 

बाहर आ पाती हैं!


उन छुपे-अटके हुए बातों 

और एहसासों को 

ढूँढने की ज़हमत

अब कौन उठाने आएगा?

ऊंगलियों पर जब ऊंगलियाँ फेरता हूँ

तो देखता हूँ 

कि

ऐसे लोग मेरे आसपास नहीं है,

और जो हैं

वे मेरे जिद्द के आगे

यूँ हार जाते हैं

जैसे मानो

मैं आसमान बन बैठा हूँ।


किसी रोज़

एक रात 

छत किनारे मैं बैठा,

स्लेटी रंग

आसमान की तरफ

एकटक 

फटाफट

अपने कालिन-सी पलकों के सहारे,

शहर को

आँखों से समेट रहा था,

तो देखा मैंने

शहर गम में नहीं था,

पर उत्साहित भी नहीं था।



और वाे सारे बादल

जाे कहीं ज़ल्दबाजी में 

जा रहे थें, 

बेझुण्ड हो चुके थें,

किसी

अनिश्चित

मिश्रित

भावनाओं के वज़ह से।

उन्हें शहर के साथ-साथ

मैं भी ढूँढ़ रहा था,

मेरी परग्रही भावनाओं को

कहीं दूर

लेकर चले जाने के लिए।

अगर हो सके तो 

कहीं किसी दूसरे

आसमान (ब्रह्मांड) में ही सही।


पर तभी एक बूँद आयी

बादलों से,

मेरे गालों को सहलाते हुए

मानो कह रही हो

कि

गम हमारा एक ही है।

साँसें 

मैंने भी अटका रखी है,

कुछ बातें 

बादलों ने भी छिपा रखी है।


हाँ, सच में तभी

मुझे एहसास हुआ 

कि

मैं शायद आसमान ही बन बैठा हूँ,

क्योंकि मेरे गमों को

हमेशा से

बादलों ने ही ताे

छुपाया और सहेज रखा है।


हाँ, मैं आसमान बन बैठा हूँ।

-प्रकाश साह

01072022


 मेरी कुछ अन्य रचनाएँ....


आपकाे यह रचना कैसी लगी नीचे कमेंट बॉक्स में लिखकर जरूर बतायें। और अगर मेरे लिए आपके पास कुछ सुझाव हाे तो आप उसे मेरे साथ जरूर साझा करें।     

🙏🙏 धन्यवाद!! 🙏🙏

BG P.C. : PRAKASH SAH

P. Editing : PRAKASH SAH

Friday 7 October 2022

है ना अज़ीब | Prakash Sah

 

www.prkshsah2011.blogspot.in



Dear You,


आज शाम के

पाँच बज रहे थें

और

तुम्हारी बातों से लगा

आज तुम

कुछ बुझी सी हो। 

कई दिनों से

मुझे भी

कुछ कहना था तुमसे।

कुछ बातें याद आती है

तुम्हारे लिए,

हर बार सोचता हूँ

कि

सब बोल दूँ तुम्हें।


अच्छा....!!!

एक खूबसूरत बात 

पता है तुम्हें....

मैं

बोल भी देता हूँ

वो सारी बातें

जो सोच रहा होता हूँ

तुमसे बोलने के लिए।

पर

फिर भी लगता है कि

कुछ अधूरा रह गया है

तुमसे बोलने को।


ऐसा क्यूँ होता है?

ये तुमसे भी पूछ लूँ क्या?

ये भी

उसी वक्त

सोचने लगता हूँ।

कितना अज़ीब है ना!!

एक सवाल के जवाब को

ढूँढ़ने में

एक और सवाल 

मेरे पास आ जाता है।

है ना अज़ीब!!!!

-प्रकाश साह

20092022


 मेरी कुछ अन्य रचनाएँ....


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BG P.C. : 

P. Editing : PRAKASH SAH