नदी की जलधारा निरंतर
अपने पूरे वेग में बहती है
जब, घने वनों के छाँव से
इनके चरणस्पर्श करके
आशीष में कुछ बूंदे लेकर
सागर से मिलने जाती है।
अनेक बाधाओं को
अपने कोमल बर्ताव से
आंचल में शामिल करके
मीठे मीठे अनुभव सहेजकर
सागर के 'खारा' ज़ख्म को
थोड़ा-सा कम करने जाती है।
जीवन जो आश्रित है
उनको अपना संतान मानकर
भू-माता अपने गर्भ में
'अमृत' को संभाले रखी है।
किनारे को सागर के चोट से
'खारा' दोष से मुक्त रखने के लिए
नदी निरंतर आंदोलन करती रहती है।
- ©ps प्रकाश साह
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Bhai teri hr poem nature ko relate krti hai... Awesome bhai😍🌏🌊
ReplyDeleteधन्यवाद!
DeleteNice bro
ReplyDeleteधन्यवाद!
DeleteInspirational 🔥
ReplyDeleteThankyou
DeleteGreat lines bhai
ReplyDeleteThankyou Bhai.
DeleteNext time, Please don't forget to mention your name.