मैंने इस रचना को 2 नवम्बर 2019 को लिखा था लेकिन आज मैं इसे आपलोग के साथ साझा कर रहा हूँ। इसका भी एक हास्यास्पद कारण है और वह यह है कि इसका मुझे कोई सटीक शीर्षक नहीं मिल रहा था। यही एकमात्र कारण है कि मैं इसे अपने ब्लॉग पर छाप नहीं पा रहा था।
पर अंततः यह मेरी खोज़ कुछ दिन पहले ही पूरी हुयी। और फिर आज आपसब के सामने एक सटीक शीर्षक के साथ यह नीचे प्रस्तुत है।
हर कोई बीत जाए
ये मुम़किन नहीं
उनका देह नहीं तो
नाम ज़िंदा रहेगा
हर कोई बदल जाए
ये मुम़किन नहीं
उनका साथ नहीं तो
आशीष सदा रहेगा
हर कोई रूठ जाए
ये मुम़किन नहीं
व्यवहारों से
नहीं तो
यादों से मना
लीजियेगा
हर कोई नास्तिक
हो जाए
ये मुम़किन नहीं
भजन से आस्तिक
नहीं तो
सेवाभाव से बन
जाइएगा
-प्रकाश साह
021119
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