।। नन्ही कली ।।
नन्ही कली निकली अभी
ओस की
बूँदें उस पे पड़ी
थोड़ी सिहरी थोड़ी ठिठुरी
फिर शरमाते हुए खिल उठी
नन्ही
कली निकली अभी
कैसी ये दुनीया ? सोच रही
उसके अलावा कोई नही
थोडी अनजानी थोड़ी अकेली
आई चुलबुली हवा, हँस उठी
नन्ही कली को मिली सखी
हर पल रहती ये सनसनाती सखी
प्रेम की दीवानी नन्ही कली
कितनी कोमल इसकी पंखुड़ी
थोड़ी नखरीली थोड़ी मासूम
हो गई सयानी, चीख उठी
नन्ही कली अब नन्ही ना रही
अपनी पंखों-सी पंखुड़ी फैला रही
ये निखरती सुन्दरता सबको दिखी
रात के अंधेरों मे भी चमकती दिखी
थोड़ी झुकी थोड़ी ऐंठी
अब मै किसी को ना मिलूँ, कह उठी
नन्ही कली हुई ‘पुष्प रानी’
किसी को देखी किसी के हाथों मे
मेरी ही जैसी कोई ‘गुलाबी सयानी’
क्या कर रही वह ? उसे है जानना
थोड़ी उत्सुक थोड़ी उलझी
कहाँ हो मेरी सखी हवा ? पुछ उठी
नन्ही कली तू अब भी ‘नन्ही कली’
उनकी तुझ से ही खुशी,
तुझ बिन उनकी प्यार अधूरी
मिलती हथेली-से-हथेली वही ‘गुलाबी सयानी’
तू भी प्रेमियों की पसंद, मेरी पुष्प
रानी !
थोड़ी प्रसन्न थोड़ी उदास
मिली हवा की आलिंगन, फिर जी उठी
नन्ही कली पुछती फिरती सबसे
मैं पुष्प रानी प्रेमियों की ही
क्यूँ ?
सच्चे मायने मे...नन्ही कली निकली
अभी
किसी किताबों के पन्नों मे,
किसी संदूक के अंधेरो में
कभी मिट्टी के धूलो मे,
कभी नदी-नालों मे...,
सड़ जाती मिट जाती, चाह कर भी
वो नन्ही कली उन्हें याद ना आती
पुष्प रानी ही क्यूँ हुई मै ?
प्रेमी युगल की ही क्यूँ हुई मै ?
थोड़ी अकेली, उसकी एक ही सहेली
नन्ही कली को बचपन की याद आ रही
हवा अपनी सनसनाहाट से सहला रही
थोड़ी मुरझाई थोड़ी गुनगुनाई
बचपन से अब तक सखी हवा ही बनी परछाई
नन्ही कली ! नन्ही कली ! नन्ही कली
!
मंद-मंद महकी तू फिर से अभी
नन्ही कली निकली अभी
ओस की बूँदें उस पे पड़ी
थोड़ी सिहरी थोड़ी ठिठुरी
फिर शरमाते हुए खिल उठी
नन्ही कली निकली अभी,
नन्ही कली निकली अभी,
नन्ही कली निकली अभी...
किन्हीं के दिलों मे किन्हीं के यादों मे
किन्ही के होठों से चुमती नन्ही कली
नन्ही कली निकली अभी
सूरज की पलको में छिपती कभी
धूप की छाओं मे निखरती नन्ही कली
नन्ही कली निकली अभी
थोड़ी झल्लाई थोड़ी चिल्लाई
उजाला सफेदी के अंगड़ाई मे, नमी की कमी
पड़ी
नन्ही कली प्यासी अभी
किसी पत्ते के किनारे से एक बूँद छलकी
छुप के निकली नन्ही कली
नन्ही कली निकली अभी
प्रेमियों की तनहाई की पूरक है तू
शहीदों के शव पर धीरज है तू
दुआओं-सम्मानों की नन्ही कली तू
नन्ही कली निकली अभी
थोड़ी शान थोड़ी गुमान
उसमे दिखी, हुई घमंड-सी बड़ी
नन्ही कली हवा से मिली
सागर की नमकीनी उसपे छिड़की
दर्द की चिल्लाहट मे कराह उठी
पहली मर्तबा दोनो सखी मे खटपट दिखी
अलग राह निकली नन्ही कली
नन्ही कली निकली अभी ।
हवा को हवा कुछ सूझा नही
हाय ! उसके साथ ही क्यूँ हुई ऐसी दशा ?
थोड़ी शुष्क थोड़ी भारी
सोच मे सखी हवा की दिल भरी
नन्ही कली को हुई एहसास
मेरी सखी की है वही मूल स्वभाव
मै पुष्प रानी हुई, थी घमंड मे चूर भरपुर
मै नन्ही कली तेरी सखी
देख नन्ही कली फिर से निकली
थोड़ी अपनी पूरी तुम्हारी
होगी ना ऐसी भूल अगली बारी
नन्ही कली ! नन्ही कली ! नन्ही कली !
हवा के साथ घुल-मिल गई
नन्ही कली निकली अभी
ओस की बूँदे उस पे पड़ी
थोड़ी सिहरी थोड़ी ठिठुरी
फिर शरमाते हुए खिल उठी
नन्ही कली निकली अभी,
नन्ही कली निकली अभी,
बहुत सुंदर रचना और कल्पना ! नन्ही कली और हवा का साख्य ! सुंदर शब्दचित्र ! अच्छा लिखते हैं आप । एक सलाह है....भाषा बहुत अच्छी प्रयोग करने पर भी व्याकरण की अशुद्धियाँ रसभंग कर देती हैं...इस पर काम करें । प्रभावी भाषा के साथ व्याकरण की शुद्धता मणि कांचन योग का काम करती हैं रचना पर ! आपकी कई रचनाएँ पढ़ीं, अच्छा लिखते हैं आप । मेरी शुभकामनाएँ ।
ReplyDeleteआपके द्वारा भूरी-भूरी प्रशंसा के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, मीना जी।
ReplyDeleteसच्च मानिए...आपकी सलाह मेरे लिए मार्गदर्शन का काम करेगा। मुझे इसकी सख्त जरूरत है। और आपके द्वारा चिन्हित बिंदुओं पर मेहनत कर सुधार करने की कोशिश करूँगा।
बस...यूँ ही आपकी सर्वश्रेष्ठ सलाह मिलती रहे।