।। नन्ही कली ।।
नन्ही कली निकली अभी
ओस की
बूँदें उस पे पड़ी
थोड़ी सिहरी थोड़ी ठिठुरी
फिर शरमाते हुए खिल उठी
नन्ही
कली निकली अभी
कैसी ये दुनीया ? सोच रही
उसके अलावा कोई नही
थोडी अनजानी थोड़ी अकेली
आई चुलबुली हवा, हँस उठी
नन्ही कली को मिली सखी
हर पल रहती ये सनसनाती सखी
प्रेम की दीवानी नन्ही कली
कितनी कोमल इसकी पंखुड़ी
थोड़ी नखरीली थोड़ी मासूम
हो गई सयानी, चीख उठी
नन्ही कली अब नन्ही ना रही
अपनी पंखों-सी पंखुड़ी फैला रही
ये निखरती सुन्दरता सबको दिखी
रात के अंधेरों मे भी चमकती दिखी
थोड़ी झुकी थोड़ी ऐंठी
अब मै किसी को ना मिलूँ, कह उठी
नन्ही कली हुई ‘पुष्प रानी’
किसी को देखी किसी के हाथों मे
मेरी ही जैसी कोई ‘गुलाबी सयानी’
क्या कर रही वह ? उसे है जानना
थोड़ी उत्सुक थोड़ी उलझी
कहाँ हो मेरी सखी हवा ? पुछ उठी