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Saturday, 29 July 2017

माटी के कर्ज चुकावे के जात बानी | भोजपुरी कविता | PRAKASH SAH

 ।। माटी के कर्ज चुकावे के जात बानी ।। 

'भोजपुरी' आपन भाषा

जनम जाहाँ लेनी, ओकरा के कहिया देखेम,
दू दिन रहेनी, तीन दिन रहेनी
फेर लउट के, इहे शहर में आ जानी ।
जेकर तनिसा लोग ही हमरा के जानलन
अाउर एही से हम, ई शहर के भी ठीक से ना पहचननी ।

जेकर कर्ज बा, ओकरा के ना चुका के
दोसरा के चुकावत बानी,
अब ढ़ेर हो गईल, अब ना होई ई हमरा से ।
जौन माटी में हम जनम ले ले बानी,
अब उहे माटी के कर्ज चुकावे के जात बानी ।

Friday, 28 July 2017

बारीश के बूँदें (Barish ke Bundein : Rain) -ps

।। बारीश के बूँदें ।।

बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम,
शीतलता फैलाना इसका रशम ।
छन-छन कर के बूँदो के घूँघरू,
बुलाते हमे की छुपा ले आँसु ।।

तेज हवाओं से बहतें हैं बादल,
ठहरतें हैं तभी, जब दिखतें हरे-भरे जंगल ।
ज्वलंत क्रोधों को दिखातें,
बरसाते अमृत के बूँदों के बारीश ।
अवरूध उत्पन्न करते हैं गीर,
काले छाती को चिर
दहाड़ते हुए, जलधारा बहाते हैं बादल ।।

बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम,
बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम...

मोतीयों के भाँती बारीश के बूँदें,
तन पे हैं गिरते, लगते ठंडे-ठंडे ।
छोड़ जाते हैं बूँदें, मिट्टी पे निशान,
धरती माता की गोद में पाते विराम ।।

बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम,
बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम...

काले बादलों से पंखों को सुसज्जीत माने,
मग्न-मुग्ध मयूर जाती नृत्य नहाने ।

मत्स्य जीवन नीर पे ही निर्भर,
उछलते-बिछलते भागतें इधर-उधर ।
एक-एक बूँदों की उपेछा पर
होतें मरन की ओर अग्रसर,
बचा लो अगर तो बन जाते समुद्र की लहर ।।

बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम,
बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम...

इस मौसम की गहराई बाहों मे समाई,
निंद की झूला पे बारीश के बूँदों ने सुलाई ।

बादल के काले-सफेद ही हैं रंग,
बरसते तो कर देते नभ निले रंग ।

बन कर बूँदे, गिरते हैं आँसु,
नयन के सपने की छू ले गगन ।

बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम,


बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम,
बारीश के बूँदों का दिवाना ये मौसम...
©ps


Monday, 24 July 2017

ढूँढ़ो जीवन प्यार का (Dhundhon Jeevan Pyaar Ka) -ps

 ।। ढूँढ़ो जीवन प्यार का ।। 



ढूँढ़ो जीवन प्यार का,
हवा, पानी, धूप सूत्रधार इस जीवन का ।
जितना चाहो उतना ले लो,
हर सुख मिलेगा इस संसार का ।

राह का इकरार करो
अनजाना-सा सफर का,
अंत नहीं अभी शुरूआत है,
मिलेगी मनचाही मंजिलें,
बस इंतजार है आत्मसात का ।

बढ़ते राह में भूल हुई,
अब क्या होगा उस कार्य का,
जिसके लिए मैनें दिन-रात लगाई ?
फिर से तुम आगे बढ़ो, बढ़ना तुम्हारा काम है,
सदैव उस भूल के याद में रहना नहीं,
वो कार्य है आत्ममंथन का ।
कारण है बस इतना –
“अंत का कोई छोर नहीं,
शुरूआत का कोई भोर नहीं"

जिंदगी नाम है उस सफ़र का,
जिस सफ़र के लिए तुम जिन्दा हो ।
तुम परिन्दा हो परिन्दा !
अपने सपनों के पंख फैलाया करो,
फिर देखो आसमां को कैसे छूते हो,
फिर देखो आसमां को कैसे छूते हो,
फिर देखो आसमां को कैसे छूते हो...
©ps