बेकरार है कोई हमसे
मोहब्बत करने को इस तरह से।
जैसे कुछ लताएँ
चढती हैं दीवार पे जिस तरह से।
हाँ, हम भी
कभी-कभी दिल हार जाते है उन पे।
जैसे मोहब्बत-ए-इम्तेहाँ में
दीवार को ले लेती हैं लताएँ आगोश में।
रुख़सत-ए-मौसम आने से
सिर्फ एक ही दिल को तकलीफ होता नहीं,
जैसे कईयों का बसेरा उजड़ जाता है दिवार से,
लताओं के हार जाने से।
लताओं के हार जाने से...
-प्रकाश साह
29092022
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