कभी-कभी
साँसों को
मैं अटका कर रखता हूँ,
कुछ बातें
छिपाकर रखता हूँ।
दिन जो
धीरे-धीरे ढ़ल जाता है,
सुबह भी हर रोज़
रोज़ की तरह
खिड़कियों पे
चली आती है,
पर जाे बातें
ज़ेहन में अटकी रहती हैं,
वाे कभी
झाँककर भी कहाँ
बाहर आ पाती हैं!
उन छुपे-अटके हुए बातों
और एहसासों को
ढूँढने की ज़हमत
अब कौन उठाने आएगा?
ऊंगलियों पर जब ऊंगलियाँ फेरता हूँ
तो देखता हूँ
कि
ऐसे लोग मेरे आसपास नहीं है,
और जो हैं
वे मेरे जिद्द के आगे
यूँ हार जाते हैं
जैसे मानो
मैं आसमान बन बैठा हूँ।
किसी रोज़
एक रात
छत किनारे मैं बैठा,
स्लेटी रंग
आसमान की तरफ
एकटक
फटाफट
अपने कालिन-सी पलकों के सहारे,
शहर को
आँखों से समेट रहा था,
तो देखा मैंने
शहर गम में नहीं था,
पर उत्साहित भी नहीं था।
और वाे सारे बादल
जाे कहीं ज़ल्दबाजी में
जा रहे थें,
बेझुण्ड हो चुके थें,
किसी
अनिश्चित
मिश्रित
भावनाओं के वज़ह से।
उन्हें शहर के साथ-साथ
मैं भी ढूँढ़ रहा था,
मेरी परग्रही भावनाओं को
कहीं दूर
लेकर चले जाने के लिए।
अगर हो सके तो
कहीं किसी दूसरेआसमान (ब्रह्मांड) में ही सही।
पर तभी एक बूँद आयी
बादलों से,
मेरे गालों को सहलाते हुए
मानो कह रही हो
कि
गम हमारा एक ही है।
साँसें
मैंने भी अटका रखी है,
कुछ बातें
बादलों ने भी छिपा रखी है।
हाँ, सच में तभी
मुझे एहसास हुआ
कि
मैं शायद आसमान ही बन बैठा हूँ,
क्योंकि मेरे गमों को
हमेशा से
बादलों ने ही ताे
छुपाया और सहेज रखा है।
हाँ, मैं आसमान बन बैठा हूँ।
-प्रकाश साह
01072022
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