वन मेला दिख गया, फूल-पत्तें नाच रहे थें
मैं उनके पास गया, वो सुकून बाँट रहे थें
रूनझूण-रूनझूण आवाजें, जमीन पे ससर रहे थें
बुजुर्गों जैसे डाँटकर, सूखे पत्तें कुछ समझा रहे थें
बादल आये थें चुपके से, मैं उलझा था वन देखने में
भर झोली लाये थें पानी, सबको नहलाकर चले गये
जंगल से ही जीवन है, तुम मुझे क्यूँ सिमटा रहे?
शहर में मुझे शामिल करो, शहर से क्यूँ हटा रहे?
09052022
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बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteजी सर! आपको सहृदय धन्यवाद।
Deleteइस प्रोत्साहन हेतु आपका सादर धन्यवाद।
ReplyDeleteबादल आये थें चुपके से, मैं उलझा था वन देखने में
ReplyDeleteभर झोली लाये थें पानी, सबको नहलाकर चले गये?
जंगल से ही जीवन है, तुम मुझे क्यूँ सिमटा रहे?
शहर में मुझे शामिल करो, शहर से क्यूँ हटा रहे...वाह! बेहतरीन सृजन।
सादर
जी बहुत धन्यवाद
Deleteकोमल किन्तु कटु प्रश्न करती अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteजी बहुत धन्यवाद
Deleteजंगल तो है न कंक्रीट के तभी तो शहर है , सचमुच कैसी विडंबना है न पेड़ विकास में बाधक हो जाते है जबकि प्रकृति का यह उपहार मनुष्य की साँसों को शुद्ध रखने के लिए संजीवनी सा है।
ReplyDeleteसंदेशात्मक सृजन।
सस्नेह
जी दी! आपने सही समझा। आशा है सभी लोग ये जल्द समझेंगे।
Deleteसादर धन्यवाद ।
I am really really impressed with your writing skills as well as with the layout on your blog.
ReplyDeleteलाजवाब प्रकाश जी! नमन है इस कविता की भाव और भाषा दोनों को।
ReplyDeleteजी शुक्रिया साहब!
Deleteप्रिय प्रकाश, सच कहूं तो तुम्हारी ये रचना एक हरे-भरे जंगल का मौन संवाद है।आखिर जंगल के मन की पीड़ा कौन कहे? एक कवि ही तो है जो उस पार देखने की सूक्ष्म दृष्टि रखता है।एक सुन्दर शब्द चित्र जो जंगल के तत्वों का मानवीकरण करते हुए एक प्रेरक संदेश को अभिव्यक्त करता है। सरल और सहज शब्दों में जीवंत मीठी- सी रचना के लिए बधाई और हार्दिक स्नेह।यूँ ही सुन्दर और मधुर लिखते रहो 👌👌
ReplyDeleteइतने विस्तृत ढंग से सराहना करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, दी!! आपका स्नेह सदैव मुझे प्रोत्साहित करता है।
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