बेकरार है कोई हमसे
मोहब्बत करने को इस तरह से।
जैसे कुछ लताएँ
चढती हैं दीवार पे जिस तरह से।
हाँ, हम भी
कभी-कभी दिल हार जाते है उन पे।
जैसे मोहब्बत-ए-इम्तेहाँ में
दीवार को ले लेती हैं लताएँ आगोश में।
रुख़सत-ए-मौसम आने से
सिर्फ एक ही दिल को तकलीफ होता नहीं,
जैसे कईयों का बसेरा उजड़ जाता है दिवार से,
लताओं के हार जाने से।
लताओं के हार जाने से...
-प्रकाश साह
29092022
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लता को दीवार का सहारा चाहिये तो दीवार को लता के होने से एक भावनात्मक सुकून मिलता होगा।शायद कईयों के नसीब से ये सहारे भी दूर हो जाते हैं।
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 14 नवम्बर 2022 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जी सादर आभार-धन्यवाद आपका।
Deleteजी, उम्दा रचना ।
ReplyDeleteजी, धन्यवाद
Deleteआपका भी बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने मेरी रचनाओं के लिए अपना कीमती समय दिया।
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